NCERT Solutions for Class 10 Hindi Kshitij Chapter 15 स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन
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प्रश्न-अभ्यास
(पाठ्यपुस्तक से)
प्रश्न 1.
कुछ पुरातन पंथी लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरोधी थे। दूविवेदी जी ने क्या-क्या तर्क देकर स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया?
उत्तर
द्विवेदी जी ने स्त्री शिक्षा का समर्थन करते हुए जो तर्क दिए वे इस प्रकार हैं
- संस्कृत के नाटककारों ने जो स्त्रियों द्वारा प्राकृत में बातें करते हुए दिखाया है वह स्त्रियों का अपढ़ होना सिद्ध नहीं करता है, क्योंकि उस समय प्राकृत ही प्रचलित भाषा रही होगी।
- द्विवेदी जी ने पुराने ग्रंथों में प्रगल्भ पांडिताओं के नामों का उल्लेख देकर सिद्ध किया कि स्त्रियाँ शिक्षित थीं।
- अत्रि-पत्नी, पत्नी धर्म पर घंटों आख्यान देती थी। गार्गी ने बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों | को हरा दिया था। मंडन-मिश्र की सहधर्मिणी ने शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दिए थे। इन सबका उदाहरण देकर स्त्री-शिक्षा को समर्थन किया है।
- रुक्मिणी दूद्वारा श्रीकृष्ण को पत्र लिखना-स्त्रियों के शिक्षित होने का ही प्रमाण है।
- यदि लड़कों के लिए शिक्षा अनर्थकारी नहीं है तो लड़कियों के लिए शिक्षा को अनर्थकारी बताना न्याससंगत नहीं है।
प्रश्न 2.
स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं-कुतर्कवादियों की इस दलील का खंडन द्विवेदी जी ने कैसे किया है, अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
दृविवेदी जी ने कुतर्कवादियों की इस दलील को कि स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं’ खंडन करते हुए विनम्रता से उपहास किया है, खूब छीछालेदर की है, जैसे
- अनर्थ स्त्रियों द्वारा होते हैं तो पुरुष भी पीछे नहीं हैं।
- स्त्रियों की शिक्षा का विरोध करना समाज का अपकार और अपराध करना है। समाज की उन्नति में बाधा लना है।
- पुराने जमाने में स्त्रियाँ नहीं पढ़ती थीं-यह कहना उनका इतिहास की अनभिज्ञता है या जान-बूझकर धोखा देना चाहते हैं।
- शकुंतला का दुष्यंत से कुवाक्य कहना या अपने परित्याग पर सीता का राम के प्रति क्रोध करना उनकी शिक्षा का परिणाम न होकर उनकी स्वाभाविकता दी थी।
- लड़कियों को अशिक्षित और केवल लड़कों शिक्षित कर देश के गौरव को नहीं बढ़ाया जा सकता है।
प्रश्न 3.
विवेदी जी ने स्त्री-शिक्षा विरोधी कुतर्को का खंडन करने के लिए व्यंग्य का सहारा लिया है-जैसे ‘यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। न वे पढ़तीं, न वे पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करतीं । आप ऐसे अन्य अंशों को निबंध में से छाँटकर समझिए और लिखिए।
उत्तर
दुविवेदी जी के निबंध में व्यंग्यों की भरमार है। व्यंग्यों की भाषा में प्रश्न है और उनके उत्तर भी उसी में छिपे हैं; जैसे-
- स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का बँट। ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष , का गौरव बढ़ाना चाहते हैं।
- अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ कौन-सी भाषा बोलती थीं? उनकी संस्कृत क्या कोई आँवारी संस्कृत थी?
- जिन पंडितों ने गाथा-सप्तशती, सेतुबंध महाकाव्य और कुमारपालित आदि ग्रंथ प्राकृत में बनाए हैं वे यदि अपढ़ और गॅवार थे तो हिंदी के प्रसिद्ध-से-प्रसिद्ध अखबार के संपादक को इस जमाने में अपढ़ और गॅवार कहा जा सकता है; क्योंकि वह अपने जमाने की प्रचलित भाषा में अख़बार लिखता है।
- अत्रि की पत्नी, पत्नी-धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करें, गार्गी ब्रह्मवादियों को हरा दे, मंडन मिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दे! गजब!”
प्रश्न 4.
पुराने समय में स्त्रियों द्वारा प्राकृत भाषा में बोलना क्यों उनके अपढ़ होने का सबूत है-पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
पुराने समय में प्राकृत बोलनो अपढ़ होने का प्रमाण नहीं है, क्योंकि बोल-चाल की प्रचलित भाषा प्राकृत ही थी, जिसे सुशिक्षितों द्वारा भी बोला जाता था। अतः स्त्रियों द्वारा प्राकृत में बोला जाना अपढ़ होने का सबूत नहीं है। जिस तरह समाचार पत्रआदि प्रचलित भाषा में ही लिखे जाते हैं वैसे उस समय में भी प्रचलित भाषा में प्राकृत में लिखने का प्रचलन रहा होगा। प्राकृत भाषा में जैनों ओर बौधों के अनेक ग्रंथों की रचना प्राकृत में ही हुई है तो स्त्रियों के द्वारा प्राकृत बोलने पर कैसे कहा जा सकता है कि वे अशिक्षित थीं।
प्रश्न 5.
परंपरा के उन्हीं पक्षों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ाते हों-तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर
प्राचीन काल से चली आ रही अप्रासंगिक परंपराएँ जो आज के समय में अनुकूल नहीं हैं या जिनका कोई महत्व नहीं रह गया है, उन परंपराओं को त्यागना ही उचित है। और जो परंपराएँ प्रासंगिक हैं उन्हें स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। वर्तमान में प्रत्येक प्रतियोगिता में स्त्री-जाति, पुरुष-जाति से कहीं भी पीछे नहीं है। इसलिए किसी भी क्षेत्र में उनकी अवहेलना करना उचित नहीं है। ऐसे पक्षों को अवश्य ही बिना विवाद और बहस के स्वीकार कर लेना उचित है जो स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर हैं। साथ ही उन पक्षों की सदैव उपेक्षा करनी चाहिए जो स्त्री-पुरुषों में असमानता का भाव पैदा करते हैं।
प्रश्न 6.
तब की शिक्षा प्रणाली और अब की शिक्षा प्रणाली में क्या अंतर है? स्पष्ट करें।
उत्तर
तब और अब की शिक्षा-प्रणाली में अपेक्षा से अधिक अंतर है। पहले शिक्षा के लिए गुरुकुल और आश्रम परंपरा थी, जहाँ छात्र रहकर वेद-वेदांतों, आदर्शों की शिक्षा ग्रहण करते थे। जीवन-मूल्यों पर आधारित शिक्षा थी। छात्र-छात्राओं को एक साथ पढ़ने की परंपरा नहीं थी। आज विद्यालयों में सह-शिक्षा का प्रचलन है आज की शिक्षा में आदर्श मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं है अपितु व्यावहारिक, व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया जाता है। गुरु परंपरा समाप्त हो गई है। शिक्षा के क्षेत्र स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से खुले हैं। अब सारा भेद समाप्त हो गया है।
रचना और अभिव्यक्ति
प्रश्न 7.
महावीर प्रसाद द्विवेदी का निबंध उनकी दूरगामी और खुली सोच का परिचायक है, कैसे?
उत्तर
द्विवेदी जी के निबंध से स्पष्ट है कि स्त्री-शिक्षा के प्रति वे कितने र्नक थे। वे जानतेथे स्त्री के सजग होने पर समाज और देश की उन्नति संभव है। जिस प्रकार स्त्री सृष्टि की जननी कही जाती है उसी प्रकार संतान को जागरूक, योग्य बनाने में माँ का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। अतः स्त्री ही बच्चों की पहली शिक्षिका है। जो संस्कार माँ (स्त्री) के द्वारा संतान में बचपन में डाल दिए जाते हैं वे ही प्रगाढ़ होकर दृढ़ता में बदलते जाते हैं। बच्चे में अच्छे संस्कारों का निर्माण सुसंस्कारित शिक्षित स्त्री ही कर सकती है। शिक्षा के अभाव में दबी-कुचली स्त्री ने स्वयं को प्रतियोगिता के योग्य बना सकती है न अपनी संतति को ।
यह सब सोच से स्पष्ट है कि द्विवेदी जी की स्त्री-शिक्षा के प्रति सकारात्मक, दूरगामी तथा अच्छे परिणाम देने वाली सोच है, इसमें किंचित संदेह नहीं है। आज उसके परिणाम दिखाई भी दे रहे हैं।
प्रश्न 8.
द्विवेदी जी की भाषा-शैली पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर
विवेदी जी ने हिंदी को सम्मानित करने और उसके गौरव में वृधि के लिए जो प्रयास किए वे सराहनीय हैं। उन्होंने अपने प्रयास से हिंदी को नई दिशा प्रदान की इसलिए भाषा-सुधारकों में उनको स्थान सर्वोच्च माना जाता है।
उन्होंने अपने निबंध में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। शैली व्यंग्यात्मक है जिसमें ऐसा लगता है वे प्रश्न पूछ रहे हैं, किंतु उन प्रश्नों में जो कहना चाहते हैं, वह स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त देशज, तद्भव शब्दों का भी प्रयोग खूब किया है। कहीं-कहीं मुहावरों के प्रयोग से भाषा जीवंत हो उठी है। यद्यपि वे हिंदी भाषा के गौरव के पक्षधर हैं फिर भी बेझिझक उर्दू और अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग में कोई संकोच नहीं किया है।
भाषा-अध्ययन
प्रश्न 9.
निम्नलिखित अनेकार्थी शब्दों को ऐसे वाक्यों में प्रयुक्त कीजिए जिनमें उनके एकाधिक अर्थ स्पष्ट हों-
चाल, दल, पत्र, हरा, पर, फल, कुल
उत्तर
चाल-मोहन की चाल तेज है।
चाल-मैं उसकी चाल में फंस गया।
दल-वन्य पशुओं के दल के दल चले आ रहे हैं।
दल-तुलसी दल सूख गए।
पत्र-पिता ने पत्र में क्या लिखा है?
पत्र-पेड़ से पत्र धीरे-धीरे गिर रहे हैं।
हरा-मोहिनी को हरा रंग भी अच्छा लगता है।
हरा-आज भी भारत ने पाक को दस रन से हरा दिया।
पर-पेड़ पर बंदर बैठा है।
पर-वह मोटा है पर स्फूर्ति बहुत है।
पर-चिड़िया के बच्चे के पर गीले होने से वह उड़ नहीं पा रही थी।
कुल-आपकी कक्षा में कुल कितने छात्र हैं?
कुल-मैं क्षत्रिय कुल का हूँ।
फल-इस वृक्ष के फल मीठे हैं।
फल-तुम्हें परिश्रम का फल अवश्य मिलेगा।
पाठेतर सक्रियता
• अपनी दादी, नानी और माँ से बातचीत कीजिए और (स्त्री-शिक्षा संबंधी) उस समय की स्थितियों का पता लगाइए और अपनी स्थितियों से तुलना करते हुए निबंध लिखिए। चाहें तो उसके साथ तसवीरें भी चिपकाइए।
• लड़कियों की शिक्षा के प्रति परिवार और समाज में जागरूकता आए-इसके लिए आप क्या-क्या करेंगे ?
• स्त्री शिक्षा पर एक पोस्टर तैयार कीजिए।
• स्त्री-शिक्षा पर एक नुक्कड़ नाटक तैयार कर उसे प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
छात्र स्वयं ही करें। रचनात्मक मूल्यांकन के उद्देश्य से ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं।
यह भी जानें
• आजादी के आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों की शिक्षा एवं उनके शोषण के विरुद्ध जो आवाज़ उठाई उसकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है आप ऐसे अन्य लोगों के योगदान के बारे में पढ़िए और मित्रों से चर्चा कीजिए
पंडिता रमाबाई
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पाँचवाँ अधिवेशन 1889 में मुंबई में आयोजित हुआ था। खचाखच भरे हॉल में देश भर के नेता एकत्र हुए थे।
एक सुंदर युवती अधिवेशन को संबोधित करने के लिए उठी। उसकी आँखों में तेज और उसके कांतिमय चेहरे पर प्रतिभा झलक रही थी। इससे पहले कांग्रेस अधिवेशनों में ऐसा दृश्य देखने में नहीं आया था। हॉल में लाउडस्पीकर न थे। पीछे बैठे हुए लोग उस युवती की आवाज़ नहीं सुन पा रहे थे। वे आगे की ओर बढ़ने लगे। यह देखकर युवती ने कहा, “भाइयो, मुझे क्षमा कीजिए। मेरी आवाज़ आप तक नहीं पहुँच पा रही है। लेकिन इस पर मुझे आश्चर्य नहीं है। क्या आपने शताब्दियों तक कभी किसी महिला की आवाज़ सुनने की कोशिश की? क्या आपने उसे इतनी शक्ति प्रदान की कि वह अपनी आवाज़ को आप तक पहुँचने योग्य बना सके?”
प्रतिनिधियों के पास इन प्रश्नों के उत्तर न थे।
एक साहसी युवती को अभी और बहुत कुछ कहना था। उसका नाम पंडिता रमाबाई था। उस दिन तक स्त्रियों ने कांग्रेस के अधिवेशनों में शायद ही कभी भाग लिया हो। पंडिता रामाबाई के प्रयास से 1889 के उस अधिवेशन में 9 महिला प्रतिनिधि सम्मिलित हुई थीं।
वे एक मूक प्रतिनिधि नहीं बन सकती थीं। विधवाओं को सिर मुंडवाए जाने की प्रथा के विरोध में रखे गए प्रस्ताव पर उन्होंने एक ज़ोरदार भाषण दिया। “आप पुरुष लोग ब्रिटिश संसद में प्रतिनिधित्व की माँग कर रहे हैं जिससे कि आप भारतीय जनता की राय वहाँ पर अभिव्यक्त कर सकें। इस पंडाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए चीख-चिल्ला रहे हैं, तब आप अपने परिवारों में वैसी ही स्वतंत्रता महिलाओं को क्यों नहीं देते? आप किसी महिला को उसके विधवा होते ही कुरूप और दूसरों पर निर्भर होने के लिए विवश करते हैं? क्या कोई विधुर भी वैसा करता है? उसे अपनी इच्छा के अनुसार जीने की स्वतंत्रता है। तब स्त्रियों को वैसी स्वतंत्रता क्यों नहीं मिलती?” निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पंडिता रमाबाई ने भारत में नारी-मुक्ति आंदोलन की नींव डाली।
वे बचपन से ही अन्याय सहन नहीं कर पाती थीं। एक दिन उन्होंने नौ वर्ष की एक छोटी-सी लड़की को उसके पति के शव के साथ भस्म किए जाने से बचाने की चेष्टा की। “यदि स्त्री के लिए भस्म होकर सती बनना अनिवार्य है तो क्या पुरुष भी पत्नी की मृत्यु के बाद सती होते हैं?” रौबपूर्वक पूछे गए इस प्रश्न का उस लड़की की माँ के पास कोई उत्तर न था। उसने केवल इतना कहा कि “यह पुरुषों की दुनिया है। कानून वे ही बनाते हैं, स्त्रियों को तो उनका पालन भर करना होता है।” रमाबाई ने पलटकर पूछा, “स्त्रियाँ ऐसे कानूनों को सहन क्यों करती हैं? मैं जब बड़ी हो जाऊँगी तो ऐसे कानूनों के विरुद्ध संघर्ष करूँगी ।” सचमुच उन्होंने पुरुषों द्वारा महिलाओं के प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया।
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